भावना सागर बत्रा की कृति “माँ तुम जीवंत हो” वाकई में जीवंत कृति है।

RaushanKumar
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पुस्तक: माँ तुम जीवंत हो

लेखिका: भावना सागर बत्रा

पाठकीय प्रतिक्रिया: कुमार संदीप

Muzaffarpur: भावना सागर बत्रा की कृति “माँ तुम जीवंत हो” पुस्तक का समर्पण भावना सागर बत्रा ने अपनी माँ को दिया है क्योंकि माँ पूर्ण ज़िंदगी अपनी संतान के हिस्से में समर्पित कर देती हैं। इस अद्वितीय पुस्तक पर मैं अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया दे सकूं इतनी मेरी ज्ञान की क्षमता तो नहीीं है फिर भी मैं शुरुआत में इस पुस्तक के संदर्भ में यह जिक्र अवश्य करना चाहूंगा कि इस पुस्तक को भावना सागर बत्रा द्वारा माँ को समर्पित करना इस बात को सिद्ध करता है कि नारी शक्ति जीते जी माँ के श्री चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित तो करती ही है, पर मृत्युपरांत भी नारी शक्ति के मन में अपनी माँ के प्रति प्रेम कम नहीं होता है।

 

 

यह बात इनकी पुस्तक के आरंभिक अध्ययन से पता चला। भावना सागर बत्रा जी की इस कृति को अंत तक पढ़ने से हम माँ के प्रेम की नदी में ख़ुद को डूबे हुए महसूस करेंगे साथ ही यह भी महसूस होता है, इस कृति को पढ़कर कि माँ दैहिक रुप से बेशक हमसे जुदा हो जाती है देवलोक चली जाती है पर मृत्युपरांत भी माँ हमारे देह में निवास करती है। माँ को स्मरण करते हुए लेखिका ने जो भाव लिखे हैं, उसे पढ़कर शुष्क नयन सजल हो जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेखिका भावना सागर जी की भावनाएं जो अपनी माँ के श्री चरणों में अभिव्यक्त हैं वह वाकई में अद्वितीय हैं। लेखिका ने अपने माँ के अथाह हौंसले का बखान करते हुए लिखा है कि मेरी माँ हमेशा बहुत सुंदर लगती थी क्योंकि वह हर परिस्थिति में मुस्कुराती थी।

 

मुझे लगता है लेखिका ने माँ के इस गुण को समझकर हर माँ के गुण को समझ लिया। माँ प्रतिकूल क्षण में भी इसलिए मुस्कुराती है ताकि प्रतिकूल क्षण में संतान के शुष्क नयन सजल ना हो। माँ के प्रति गद्य विधा में पद्य विधा में भाव को इस कृति में व्यक्त करते हुए वह लिखती हैं कि माँ तुम्हारे त्याग, समर्पण को चंद अल्फ़ाज़ में मैं अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ। जो अक्सर दूसरे को ख़ुशी बाँटता है अक्सर उसे ही दूसरों से दुख प्राप्त होता है कुछ ऐसा ही हुआ है लेखिका के माता श्री के संग जो इन्होंने अपनी कृति में जिक्र किया है। इस खूबसूरत कृति में भावना सागर बत्रा लिखती हैं कि माँ से बढ़कर ख़ुदा नहीं हैं। ऐसा इसलिए उन्होंने लिखा हो कहीं कि ख़ुदा भी किसी माँ की संतान हैं।

 

माँ को खिलखिलाने वाली बगिया कहकर मानो माँ के व्यक्तित्व की संपूर्ण व्याख्या को लेखिका ने प्रस्तुत कर दिया है। इस जन्म में जिस माँ का सानिध्य लेखिका को मिला है उस माँ को हर जन्म में प्राप्त करने की प्रार्थना कान्हा जी से लेखिका करती है तो इससे यह ज्ञात होता है कि उनका माँ से अकथनीय नाता था और अब भी है। चंद संसाधनों में पूरी ज़िंदगी गुजारने का गुण इस जहां में ईश्वर ने माँ को ही दिया है इस बात का भी बखूबी गुणगान लेखिका ने माँ के लिए किया है।

 

माँ ने हमारे लिए क्या किया और आज की संतान माँ के लिए क्या कर रही है इस बात का बखूबी गुणगान किया है लेखिका ने अनपढ़ माँ सृजन में। माँ जैसा प्यार माँ के सिवा हमें कोई नहीं दे सकता इस बात की भी सुंदर व्याख्या लेखिका ने प्रस्तुत किया है। माँ का ईश्वर के श्री चरणों में जाते हुए देखने की पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया है लेखिका ने। माँ हर रिश्ते को सहेजकर कर रखती हैं और माँ के जाने के पश्चात कुछेक रिश्ते ही शेष रह जाते हैं इस बात का बड़े सुंदर भाव में वर्णन किया है इस पुस्तक में।

 

 

इस पुस्तक के हरेक रचनाओं की व्याख्या की जानी चाहिए पर समय की बंदिश और पुस्तक के पृष्ठों को ध्यान में रखते हुए मैं अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया का अंत कर रहा हूँ पर अंततः इतना ही कहूंगा कि इस खूब कृति को पढ़कर आप अपनी माँ के जीवन के कुछेक हिस्सों को भी पढ़ पाएंगे।

आप इस पुस्तक को अंततः पढ़कर यह समझ पाएंगे कि माँ ने हमारे लिए जो किया है वैसा या तो ख़ुदा या माँ ही कर सकती है दूजा कोई नहीं। मेरे जैसा सामान्य साहित्य का प्रहरी इस पुस्तक पर विस्तारपूर्वक अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाने में असमर्थ है, क्योंकि यह कृति एक अद्वितीय कृति में एक है।

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